Saturday, February 13, 2016

प्रेम की कुछ कविताएँ

प्रेम की कुछ कविताएँ
ब्रजेश कानूनगो  

कविता-1

चाँद के टुकड़े
ब्रजेश कानूनगो

शरमा रही है दूब कुछ ऐसे
अभी छूकर गया कोई जैसे

ओस पर लिख गया है अपना नाम
यह वही लिपि है शायद 
जिसमें लिखी जाती धड़कनों की भाषा
शब्दों के अर्थ सामनें हैं बे-आवाज

एक राग सुनाई देता है गुम्बद की हवा में  
घंटियों की गूँज पर सवार उड़ गई
कोई चिड़िया अभी-अभी 

आईना था चांदनी का जलाशय 
एक फल आ गिरा अचानक शहद भरा

थिरकने लगे चाँद के टुकड़े
तरंगों की कमर में बाँहें डाले.

०००








 

कविता-2

खाता बही में प्रेम
ब्रजेश कानूनगो 

चांदनी में नहाए
किसी ख़ूबसूरत लम्हे में  
लाड में आकर तुम कहीं पूछ बैठो 
कितना प्यार मिला जीवन में ?
तो क्या कहूंगा मैं !

दुनियादारी के खाता-बही में
आधी सदी तक प्रविष्टियों के उपरांत 
कभी प्यार का कोई रिकार्ड नहीं संजोया बेशक
मगर जो मन की एक किताब है उसमें
हर पन्ने पर सबसे पहले
स्वतः दर्ज हो जाता है तुम्हारा प्रेम

इतनी बड़ी हो गयी है पूंजी 
कि बही-खाते की रेखाओं से बाहर निकल रहे हैं आंकड़े
समुद्र के आयतन से कुछ अधिक हो गया है उसका मान
धरती के घनत्व से ज्यादा सघन है यह अर्जित प्रेम

संभव ही नहीं शायद
तुम्हारे प्रेम का हिसाब रखना
आकाश जितने अगले पन्ने पर
दर्ज नहीं हो पा रहा मुझसे पिछला बाकी.

०००




         
कविता-3

प्रेम में गणित
ब्रजेश कानूनगो

सवालों को हल करते हुए
जो बीज गिर जाता है बीच में
वह गणित नहीं है
नीली स्याही में इन्द्रधनुष खिलता है कागज़ पर

अंकों के पीछे नहीं
आगे लगते हैं शून्य
शून्य का मान शून्य से भी हल्का
जैसे फूल की पँखुरी

सुनसान किनारे तक जाकर ठहर जाती हैं रेखाएँ
त्रिभुज में रूपांतरित होने लगते हैं आयत
त्रिभुज तो जैसे दिल में बदल जाने को बैचेन बैठे होते हैं
आकृतियों को गुलाबी होने में देर नहीं लगती बिलकुल

संतूर की तरह बजता है गणित
प्रेम के राग में. 

०००











कविता-4

पांच हजार शामों वाली लड़की
ब्रजेश कानूनगो  

ज्येष्ठ की तपन भी
साँझ की बयार में बदल जाती है
दोपहर को जब चली आती है
पांच हजार शामों वाली लड़की.

रात तो फिर रात ही है. 
न जाने कितनी सदियों से 
दुनिया के अँधेरे से लड़ते हुए
प्रेयसी कहें पत्नी कहें या माँ कह लें
बहन या बेटी होकर भी यही करती रही
कहीं और जाकर भी
दिया जलाती रही

रोशनी से जगमग करती रही सबका संसार
पांच हजार शामों वाली लड़की.

यूँ तो बहुत हैं जमाने में 
खैर खबर लेने वाले 
जब रात को अकड़ जाती है कमर 
पांच हजार दोस्त नही
वही होती है चिंतित 
पांच हजार शामों वाली लड़की.

रहस्य ही है अब तक
पांच हजार हमारी शामों को
ख़ूबसूरत बनाती लड़की के दुःख
ख़त्म नहीं होते
पांच हजार नई सुबहों के बाद भी.
कविता-5

प्रेम कविता का मौसम
ब्रजेश कानूनगो

ऊब, तपन और थकान से भरे
मौसम में भी 
प्रेम कविता ठंडक देती है

ऐसा नहीं है कि गर्मियों में पिघलकर
रूह-अफजा में तब्दील हो जाती है कविता  
प्रेम की बात हो तो हर मौसम
बसंत में बदल जाता है

ज्यादा अर्थ नहीं रखता
मौसमों का विभाजन
प्रेम कविता में डूबे व्यक्ति के लिए 
चार कहें पांच कहें
या छः निर्धारित कर लें इनकी संख्या
एक ही होता है केवल ’प्रेम का मौसम’

सारे विशेषण जैसे प्रेम का पर्याय कवि के लिए.

ज्यादा से ज्यादा
इतना होता है सुविधा के लिए
कि मौसम दो ऋतुओं में बंट जाते हैं
कुछ महीनें मिलन के
और थोड़े से वियोग के समझ लीजिये

गौर करें आप
कि वेदना में सींचता है कविता की जमीन आंसुओं से
और जब आती है मिलन ऋतु
खूब लेता है कवि फूलों का मजा 


यह वही मौसम है कमबख्त  
जो पसीने की तरह रिसता रहता है देह से 
भिगोता है बरसात में तन-मन
फूलों की तरह खिलता है
और खुशबू की तरह बिखर जाता है
प्रेम कविता में.

०००  

 

कविता-6

अनंत किस्सा
ब्रजेश कानूनगो

दरअसल किस्सा वहीँ से शरू हुआ
जब प्रेम में भीगे दो मनुष्यों का मिलन  हुआ
और आबाद होने लगी ये दुनिया

दो पत्थरों का प्रेम ही था वह शायद
जो चमक उठा था घर्षण के साथ

पानी के निर्माण  से पहले
आक्सीजन और हायड्रोजन में भी
प्रेम की आहट हुई होगी जरूर

बीज को मिटटी और नमी का जब  मिलता है प्रेम
तो धूप में हरी पत्तियाँ निकल आती हैं
रसों के मिलन के बाद खिल ही जाते हैं फूल

दरकने लगते हैं पहाड़
जब कम होने लगता है प्रेम 
बस्तियां जलने लगती हैं
तटबंध टूट जाते हैं
विश्वास बह जाता है सारा 

जारी रहेगा जीवन का यह किस्सा
धड़कता रहेगा जब तक प्रेम अनंत   
नष्ट नहीं होगी यह ख़ूबसूरत दुनिया.  

ब्रजेश कानूनगो