Saturday, March 31, 2012

गर्व कीजिए मूर्खता पर


गर्व कीजिए मूर्खता पर
ब्रजेश कानूनगो
एक अप्रैल याने मूर्ख दिवस । एक दूसरे को तथाकथित मूर्ख बनाने की गलत परम्परा। मूर्खता या मूर्ख को परिभाषित करना भी बडा कठिन कार्य है । मूर्खता के प्रतीक के रूप में अक्सर गधे जैसे सीधे-सादे प्राणी को निशाना बनाया जाता रहा है। प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या वाकई गधा या गधापन मूर्ख और मूर्खता का प्रतिनिधित्व सही रूप मे करते हैं। अगर गधे के बिना बोले बोझा ढोने के गुण से मूर्खता परिलक्षित होती है तो फिर वे सब भी मूर्ख हुए जिन्होने किसी न किसी तरह का भार अपने कन्धों पर उठाए रखा है। जो यह मानते हैं कि वे ही हैं जिनके कन्धों पर सवार होकर देश आगे बढ रहा है, वे भी गदर्भ राज की बिरादरी मे सम्मिलित किए जाने के योग्य हो जाते हैं। यह भार जो कन्धों पर बेताल की तरह सवार होकर जीवन की अनेक अच्छी-बुरी कहानियाँ सुनाते हुए हमसे प्रश्न पूछता रहता है ,वैचारिक हो सकता है, प्रशासनिक हो सकता है, राजनैतिक हो सकता है, व्यवस्थागत हो सकता है। अर्थात वे सब जिनके ऊपर किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी है वे सब मूर्ख हुए। न सिर्फ गधे के साथ अपितु हरे व्यक्ति के साथ मूर्खता के सन्दर्भ मे यह ज्यादती ही है। अगर समय असमय गधे के रैंकने की प्रवृति गधे को मूर्ख कहे जाने का कारण है तो यह प्रवृत्ति तो आदमजात मे भी पाई जाती है,
अंतर सिर्फ इतना है कि यहाँ इसे भाषण,प्रतिक्रिया,गुस्सा,दहाडना,हसंना,गुनगुनाना आदि कहा जाता है।  कुछ लोग उल्लू जैसे चतुर और अन्धेरे मे भी देखने की क्षमता रखने वाले तेज नजरोंवाले पक्षी को मूर्ख का प्रतिरूप मनते हैं,जबकि लक्ष्मी का वाहन ही उल्लू को कहा गया है। इसका मतलब वे सब लोग जो नियमों और कानून के सुराखों को अपनी तेज नजरों से तलाश करके लक्ष्मीपति बने हैं ,क्या मूर्ख कहे जाने योग्य हैं?
दरअसल मूर्खता का रिश्ता किसी पशु या पक्षी की बजाय समकालीनता से ज्यादा करीब का होता है। जिस काम को किए जाने के लिए समय का आग्रह हो और आप उसके लिए प्रतिकूल कार्य करें तो वह मूर्खता कही जाएगी। मसलन परीक्षाएँ चल रही हों, नकलपट्टी जोर शोर से जारी हो,लेकिन आप बहती गंगा मे हाथ नही धोना चाहते और स्वज्ञान से प्रश्नपत्र हल करते हैं। जरा से सेवा शुल्क के भुगतान से आप को मन चाही पोस्टिंग मिल सकती है लेकिन आप जमाने के दस्तूर से दूर रहते हैं। चुनावों मे आपको लगता है कि आप ने सही प्रतिनिधि को चुना है लेकिन बाद मे महसूस करते हैं कि वह आपकी एक मूर्खता ही थी , वोट का ठप्पा किसी भी निशान पर पडे ,आपके द्वारा भेजा गया व्यक्ति संसद में जो करता है, वह किसी से छुपा नही रह गया है।
सच तो यह है कि समझदारी एक ऐसी तलवार है जो मूर्खता की पारदर्शी म्यान मे रखी होती है।जिस डाली पर महाकवि कुल्हाडी चलाकर मूर्ख कहलाए, उसी डाली के फूल महाकवि की विद्वता पर न्यौछावर हो गए। मूर्ख और मूर्खता के महत्व को कभी भी कम नही आँका जाना चाहिए ।
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क, कनाडिया रोड,इन्दौर-18                                                  

Monday, March 19, 2012

सुन्दर ही सेक्सी है


व्यंग्य
सुन्दर ही सेक्सी है
ब्रजेश कानूनगो

भाषा का भी ठीक उसी प्रकार क्रमिक विकास हुआ है जैसे भ्रष्टाचार का हुआ है. जब पहली बार किसी ने स्वार्थसिद्धी के लिए रिश्वत ली और दी होगी तब उसे  कुछ भी कहा गया होगा 'भ्रष्टाचार ' तो शायद नहीं ही कहा गया होगा. किसी अधिकृत काम को किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पैसे लेकर काम कर दिए जाने को बुराई के रूप में  'दलाली' कहा जाता था लेकिन अब दलाली ही अधिकृत हो गया है. कमीशन कहें या फ्रेंचाइसी क्या फर्क पडता है.  है तो वह दलाली ही. असल में भाषा अभिव्यक्ति को दूसरे तक पहुंचाने का माध्यम होती है और शब्द वे संकेत होते हैं जो उस क्रिया या अनुभूति को प्रमाणित करते हैं. सूरज को पृथ्वी कहने से वह आग उगलना बंद नहीं कर देगा. पहली बार किसी ने पृथ्वी को पृथ्वी तथा सूरज को सूरज कहा होगा. यदि सूरज को सबसे पहले  'जहाज'  कह दिया होता तो जहाज से ही हमारे पास रोशनी और धूप पहुँचती.

सुबह का नजारा देखिए. भोर की कैसी सुन्दर बेला होती है. इधर पक्षियों का कलरव शुरू हुआ कि  पूरब से सूरज की किरणें हल्का हल्का प्रकाश बिखेरने लगती हैं .पहाडियों के पीछे से धीरे धीरे गुलाबी गोला ऊपर उठने लगता है. मन में अनोखा  अहसास या अनुभूति पैदा होती है तो मुँह से निकल पडता है..सुन्दर..अतिसुन्दर ..! सुन्दर शब्द तो मात्र उस अनुभूति को पहचान दिलानेवाला संकेत है. यह प्रमाणीकरण यदि 'नमकीन' शब्द से प्रारम्भ में कर दिया  गया होता तो हम सुन्दर या अतिसुन्दर की अनुभूति के लिए 'नमकीन' शब्द का संकेत चुनते और आज सुबह-सुबह का नजारा देखकर हमारे मुँह से निकलता...अहा..! क्या नमकीन नजारा है.

भाषा विकास की इस अवधारणा को हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष के एक वक्तव्य से भी बल मिला है. उन्होंने कहा कि यदि कोई सौन्दर्य प्रेमी व्यक्ति लडकियों को 'सेक्सी' कहे तो उसे सकारात्मक रूप से लिया जाना चाहिए. क्योंकि 'सेक्सी' का अर्थ होता है  ' ऐसी सुंदरता जो आकर्षित करे '.  महिला आयोग के बयान पर बेवजह बहस चल पडी है .वस्तुत: उन्होंने कुछ गलत नहीं कहा था.   सुन्दर कहो या सेक्सी कहो, क्या फर्क पडता है .जो सुन्दर है वह सुन्दर है. जो सेक्सी है वह सेक्सी है. जो सुन्दर है वह अपनी सुंदरता पर गर्व करे,जो सेक्सी है वह अपनी सेक्सियत पर गर्व करे.  अरे भाई इस कहने सुनने से भी कोई फर्क पडता है भला.  पता नहीं भंवरी देवी को कोई सुन्दर कहता था या कुछ और कहता था लेकिन  जो होना था सो हुआ. बेटमा में या भोपाल में या लसूडिया में या हर कहीं मनुष्य की मादा प्रजाति के साथ  जो हो रहा है उसमे इस 'सेक्सी' संकेत या शब्द का क्या दोष या भूमिका रही है, ज़रा बताएं ?  भैया पहले उन उपभोक्तावादी बाजारू संकेतों को पहचानने की कोशिश करो जो अपनी तहजीब और मूल्यों को प्रदूषित करके  हमारे  चरित्र और आचरण को सेक्सी अथवा नमकीन (जो कहना चाहें) बनाने का षड़यंत्र रच रहे हैं.

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इंदौर-18


Friday, February 24, 2012

मुन्नाभाई का भ्रातृप्रेम


व्यंग्य
मुन्नाभाई का भ्रातृप्रेम
ब्रजेश कानूनगो

भारतीय भूत में भाई की बड़ी महत्ता रही है. भाई की खातिर भाई जान पर खेल जाया करते थे. राम को वनवास भेजने वाली सगी माँ को एक सोतेला भाई  आजीवन क्षमा नहीं कर पाता  और स्वयं राम की पादुकाएं सिंहासन पर रखकर वनवासी सा जीवन चौदह वर्षों तक व्यतीत करता है ,दूसरा अपनी नवब्याहता पत्नी को छोडकर भाई की सेवा में वन को चला जाता है. कहावत सी बन गई है कि इस युग में राम तो बहुत मिल जाएँगे लेकिन भरत और लक्ष्मण सा भाई  मिलना कठिन है.

फिल्मों में भी भाईभाई को लेकर अनेक रोचक  कहानियां आती रहीं हैं.  अलग अलग विचारधारा और चरित्र के भाई अंत में परम्परानुसार एक दूसरे के शुभचिंतक हो जाते हैं. लेकिन वास्तविक जीवन में भ्रातृप्रेम  के ऐसे सच्चे प्रसंग कभी-कभार ही देखने को मिल पाते हैं .

इसी भ्रातृप्रेम का निर्वाह करते हुए दो युवक पुलिस आरक्षक की परीक्षा देते हुए इंदौर में पकड़ लिए गए. यह हमारी  सामाजिक कमजोरी ही कहा जाएगा कि नियम कानून के तहत उनका केस बना दिया गया.  एक महान परम्परा जो साकार होने जा रही थी,एक इतिहास जो फिर अपने को दोहराने का प्रयास कर रहा था, ना-समझ निरीक्षकों की नादानी की वजह से संभव नहीं हो पाया.

बड़ा जालिम है यह ज़माना. जब-जब भाई ने भाई के लिए कुछ करना चाहा है ,तब तब फच्चर फसाया गया है. कुछ वर्ष पूर्व भी एक भाई के साथ ऐसा ही हुआ था, संयोग से वह भी पुलिसकर्मी था. उसने अपनी छुट्टी के लिए विभाग को आवेदन किया तो स्वीकृत नहीं हुई . तब अंतत: भाई ही भाई के काम आया. उसने अपने छोटे भाई  को वर्दी पहनाई और ड्यूटी पर तैनात कर दिया.   लेकिन वही हुआ , भाई का भाई से यह प्रेम जमाने की कुटिल निगाहों में आ गया.भाई पकड़ा गया और आदर्श का एक शिलालेख स्थापित होने के पहले ही खान नदी के पेंदे में पहुँच गया.
दोषी वही है जो पकड़ा जाए. ये भाई पकड़ लिए गए इस लिए अपराधी हो गए. वे अनेक लोग जो विभिन्न योजनाओं में दूसरों के हकों का लाभ ले रहे हैं,वे जो दूसरों के खेतों पर अपनी फसल काट रहे हैं, निर्दोष हैं. भाई भाई  के काम आ रहा है तो वह दोषी हो गया है.

भूल गए हैं हम अपनी परम्पराओं और अपनी महान संस्कृति को जब एक भाई दूसरे भाई की पादुकाएं सिंहासन पर रखकर राजकाज चलाया करते थे .और अब जब एक भाई वर्दी पहनकर दूसरे भाई की सहायता करना चाहता है उसे अपराधी घोषित कर दिया जाता है. परीक्षा में भाई के भले के लिए अपने ज्ञान का  मौन समर्पण करने पर उसे मुन्नाभाई जैसे  गुंडे की श्रेणी में ला खडा कर दिया जाता है.
हमारी संस्कृति रही है कि भाई भाई के काम आए.मुँह बोले भाईयों तक ने वक्त पडने पर एक दूसरे की मदद की है.    लेकिन  समय ने अब ऐसी करवट बदली है कि ऐसा आसानी से करने नहीं दिया जाता है.  यह उचित समय है जब हम भ्रातृप्रेम की महान परम्परा को बचाने के लिए विमर्श की शुरुआत कर सकते है. ज़रा सोंचिए..!
*
ब्रजेश कानूनगो
503, गोयल रिजेंसी ,चमेली पार्क कनाडिया रोड,इंदौर-18
मो.न.09893944294


Sunday, February 5, 2012

फटे कपड़ों से तन ढांके गुजरता है जहाँ कोई,समझ लेना वो डगर अदम के गाँव जाती है


फटे कपड़ों से तन ढांके गुजरता है जहाँ कोई,समझ लेना वो डगर अदम के गाँव जाती है
ब्रजेश कानूनगो
जन कवि अदम गोंडवी को याद करना एक मायने में उस आवाज को याद करने जैसा है जिसके शब्दों में देश के गरीबों ,मजदूरों ,किसानों और आम लोगों की पीड़ा और उनके कष्टों की गूँज सुनाई देती थी.
वे ऐसे कवि और शायर थे जिनके चले जाने के बाद उस हिन्दुस्तानी जबान का प्रतिनिधित्व करने वाला एक ऐसा साहित्यकार चला गया है जो समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े मुश्किलजदा आदमी के संघर्षों की भाषा रही है. कविता की इस भाषा में तो जैसे उनके बाद बहुत बड़ा शून्य सा महसूस होता है.
 महलों की बुलंदी से  लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से

अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से

अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें धूमिल की विरासत को क़रीने से.

जिंदगी और मौत के बीच अनेक मुश्किलों का सामना और संघर्ष करते हुए हमारे दौर का यह महान जनकवि गत १८ दिसंबर २०११ को अपनी गजलों और कविताओं की पूंजी हमारे लिए छोडकर चला गया. अदम के जाने के बाद उस अलहदा काव्य परम्परा पर भी प्रश्न चिन्ह लगता दिखाई देता है जो दुष्यंत कुमार  के बाद रामनाथसिंह याने अदम गोंडवी ने आगे बढ़ाई थी.
काजू भुने प्लेट में,व्हिस्की गिलास में ,राम राज उतरा है आज विधायक निवास में .
जनता के पास एक ही चारा है बगावत, यह बात कह रहा हूँ मै होशो हवास में.
अदमजी की समूची शख्शियत अनकी कविता के नायक के जीवन की तरह थी. सादा सा कुर्ता ,मटमैली सी धोती और गले में मफलर ,उन्हें देखकर लगता जैसे कोई किसान सीधे अपने खेतों से चला आ रहा हो. जैसे भीतर वैसे ही बाहर,एक दम रफ टफ से. वे असली धरती पुत्र थे ,लेकिन उनकी आवाज देश की आवाज बन गई थी.शायरी की गूँज देश की सीमा लांघकर पूरी दुनिया के कानों तक अपनी तरंगे पहुंचाने में कामयाब हो रही थीं. तमाम शोहरत के बावजूद वे इसका कोई निजी लाभ लेने का मानस कभी नहीं बना पाए. अपने गाँव ,अपनी मिट्टी ,अपने लोगों के मोह से सदा वे बंधे रहे,यही कारण रहा कि कभी वे समझौ़ता परस्ती के शिकार नहीं हुए. शायद यही बात थी जो उन्हें ताकत देती थी और वे बेबाक,दोटूक और सीधे सीधे अपनी खरी-खरी शायरी में अभिव्यक्त कर पाते थे.
वो जिसके हाथ में छाले हैं,पैरों में बिवाई है,उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है.
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का ,उधर लाखों में गांधीजी के चेलों की कमाई है.
 वे इस जमाने के कबीर थे. फक्कड मिजाज अदम अपनी कविताओं में भी खुरदरे दिखाई देते थे.कबीर की तरह वे अनपढ भले ही नहीं थे लेकिन उनकी प्राइमरी तक की  पढाई को आज के संदर्भों में पढ़े-लिखे के पैमाने पर भला कैसे फिट बैठाया जासकता है. उनकी शायरी में आज की स्थितियों और चालाकियों पर जो टिप्पणियाँ दिखाई देतीं हैं उनसे उनका व्यापक वैचारिक द्रष्टिकोण और विचारधारा स्पष्ट होती है. मतभेदों और साम्प्रदायिक विचारों को छोडकर अदम गरीबी के खिलाफ मिलजुलकर लड़ाई लड़ने  का आह्वान करते हैं.
हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ
मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये .
अदम गोंडवी की कविता में आलोचकों को कविता के व्यंजना धर्म का अनुशासन दिखाई नहीं दिया लेकिन  उन्होने  इस बात की कभी चिंता नहीं पाली. उनकी अभिधा ,व्यंजना पर भारी पडती है.सीधे-सीधे उनकी शायरी धधकते अंगारों की तरह आक्रमण करती है. किसी तरह के  मुगालते  या संकोच का वे अवसर नहीं देते बल्कि जो कुछ कहना होता है सीधे  शब्दों में सुना देते हैं. एक नजर ज़रा इस कविता पर भी डालें-
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखेंगे ,
अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे.
महज तनख्वाह में निबटेंगे ,क्या नखरे लुगाई के,
हजारों रास्ते हैं सिन्हा साहब की कमाई के
मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं,
पिछली बाढ के तोहफे हैं ये कंगन कलाई के.
अंत में एक नजर ज़रा इस कविता पर भी डालें-

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की ?
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की
याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की

धीमी आंच पर विचारों का परिपाक तैयार करके  गरमागरम परोसने वाले इस कवि की शायरी का विद्रोही तेवर अब हमें दिखाई नहीं दे सकेगा. व्यवस्था फिलहाल भले ही थोड़ी राहत महसूस करे लेकिन कोई आश्चर्य नहीं  होगा जब अदम गोंडवी की कविता की गूँज  प्रतिरोध के नए सुरों का आधार बनकर कविता का कोई नया और सार्थक राग बन जाए.
ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क ,कनाडिया रोड,इंदौर-18