Sunday, October 17, 2021

कहानी संग्रह ‘वसंत का उजाड़’ पढ़ने के बाद

 

पाठकीय टिप्पणी

कहानी संग्रह वसंत का उजाड़पढ़ने के बाद

ब्रजेश कानूनगो   

 

वरिष्ठ कथाकार डॉ प्रकाश कान्त के कहानी संग्रह वसंत का उजाड़को एक बैठक में नहीं पढ़ा जाना चाहिए प्रत्येक कहानी स्वाध्याय की मांग करती है जो कुछ पढ़ते हैं उसको महसूस करने के लिए पर्याप्त समय दया जाना चाहिए मैंने कुछ ऐसा ही किया और तेरह कहानियां अलग अलग तेरह दिनों में पढ़कर वास्तविक सुख की अनुभूति की. यही कारण है कि कहानियों को पढ़ते हुए थोड़ा बहुत जो मुझे महसूस हुआ, एक विद्यार्थी पाठक की तरह यहाँ कहने की कोशिश की है

 

प्रत्येक कहानी से गुजरने के  बाद मन पर उसका देर तक गहरा प्रभाव बने रहने के कारण उस कथा समय से लौटने का मन ही नहीं करता। जैसे कहानीकार मेरी अपनी, मेरे अपने अतीत की बात कर रहा हो। अतीत कैसा भी क्यों रहा हो,अपने में जकड़ लेता है। और कहानी का देशकाल और जीवन चित्रण, पात्र, मुझे अपनी ही स्मृतियों का हिस्सा लगने लगे तो थोड़ा रुकने का मन करता है। अनुभूतियों को फिर फिर प्राप्त करने को जी चाहता है।

 

पहली कहानी 'एक नदी-समय के बाद' और आज 'मरुस्थलों के विरुद्ध' पढ़ीं तो ऐसा ही महसूस हुआ. पत्नी,घर,परिवार और साधारण मध्यमवर्गीय व्यक्ति की मनः स्थिति जीवन शैली की छोटी छोटी बातों, आदतों को इस संवेदनशीलता से कहा गया है कि पाठक भावुक हुए बिना रह ही नहीं सकता। कई जगह तो लेखक और नायक लगभग एक ही लगने लगते हैं। नायक का समय हमारा समय हो जाता है। नायक की संवेदनाएं और संवाद जैसे हमारे ही हो गए हों। वे सामने घटित होते नजर आने लगते हैं। स्वाभाविक,सहज चित्रण जैसे घर में ही सब कुछ चल रहा हो। अद्भुत है। कहानियों से जो रिस कर भीतर उतरता है, उसके लिए फिलहाल कोई उचित शब्द ही नहीं सूझ रहा। वह स्पंदन तो बस पढ़कर ही महसूस किया जा सकता है।

 

आमतौर पर मालवी,निमाड़ी में किसी खास औरत के लिए 'सिड़ली' शब्द का प्रयोग बहुत होता है। आदमी के लिए 'सिड़ला' चलन में है। अब इसे खप्ति या सनकी जैसे शब्दों के नजदीक भले रखा जा सके, किन्तु फिर भी इनसे वह बहुत अलग है। यह 'बावला' या 'बावली' से भी अलग है। 'बेंडा' भी ठीक नहीं बैठता। इस प्रकृति या स्वभाव के व्यक्ति को यदि ठीक से समझना है तो आपको डॉ प्रकाशकान्त की कहानी 'सिड़ली' को पढ़ना होगा।

 

'वसंत का उजाड़' संग्रह की तेरह कहानियों में से 'सिड़ली' कहानी बहुत अनोखी है। अनोखी इसलिए कि यह कहानी मुख्य पात्र के माध्यम से निम्नमध्यम वर्ग की औरत के स्वभाव और मनःस्थिति में आई कर्कशता, कठोरता के पीछे के कारणों पर से बिना किसी बौद्धिक प्रपंच के, बिना किसी नाटकीयता से पर्दा उठाती है। बहुत संभव है ये कहानी आज के महानगरीय पाठकों को अतिशयोक्ति की तरह लगे लेकिन जिन्होंने कस्बों,छोटे शहरों की मिलीजुली बस्तियों को नजदीक से देखा और जिया होगा उनके लिए यह अजूबा नहीं है। वास्तविकता है। बहुत से लोगों ने बचपन के मोहल्लों में ऐसे पात्रों को रोज रोज देखा होगा,अनुभव किया होगा।

कहानी की औरत के अपने दुख हैं, जवान होती दो बेटियां हैं,संताप हैं, अशिक्षा है, लगभग निष्क्रिय सा मर्द है। बेटियों को लेकर शादी की चिंताएं हैं। शक है,असुरक्षा है। कई कारण हैं जो व्यक्ति को चिड़चिड़ा, आक्रामक, गुस्सैल,अशिष्ट,असभ्य बना देते हैं। कहानी की नायिका को इन्ही सब विशेषताओं की वजह से 'सिड़ली' कहा गया है। ऐसे में नायिका को भी समाज की बहुत बड़े वर्ग की स्त्रियों की तरह ही ईश्वर का सहारा और धार्मिकता में समस्याओं का रास्ता नजर आने लगता है। लेकिन यहां भी तो बहुत सारी असुरक्षा व्याप्त है, शक से छुटकारा नहीं। परिवार की तबाही के बाद 'हरे राम हरे कृष्णा' कहती दोहराती 'सिड़ली' अपना संतुलन पूरी तरह खो बैठती है। कहानी समाज के निम्न वर्ग के जीवन को मनोविज्ञानिक दृष्टिकोण से सूक्ष्मता से अभिव्यक्त करती है।

 

कहानी के लिए मुख्य पात्र को चुनना बहुत महत्वपूर्ण होता है। प्रकाश कांत जी का इस चयन में किसी से कोई मुकाबला ही नहीं। एक तरफ दबंग और लड़ाकू प्रकृति की 'सिड़ली' जैसी अपने ही दुखों में डूबी औरत है तो दूसरी ओर 'बाबू बिगुलवाला' जैसा सामान्य कांस्टेबल भी है जो पुलिस गतिविधियों में बस 'बिगुल' बजाने की नौकरी करता है।

'बिगुल' कहानी पढ़ते हुए बरबस मुझे देवास के कलाकार बशीरखां याद आए। वे एक दुर्लभ वाद्य 'नसतरंग' बजाया करते थे। बजाया क्या करते थे,उन्होंने इस वाद्य के वादन में अपना जीवन होम कर दिया था। वाद्य को गले की नस पर रखकर अपनी धमनियों में हवा भरकर कम्पन करके इसे बजाते थे। बाद में फेफड़ों ने जवाब दे दिया। बीमारी का इलाज करवाते हुए ही चल बसे। कहानी का नायक बिगुल बजाता है। शंख फूंकने जैसा ही कष्ट साध्य काम। पर यही तो रोजी रोटी है बाबू बिगुलवाले की। पुलिस विभाग की ड्यूटी के दौरान पुलिस लाइन की हर रोलकाल में ,सलामी,श्रद्धांजलि के वक्त जरूरी वादन, बिगुल की गूंज। इसके अपने राग,अपनी खास धुने। जैसे बाबू बिगुलवाले के जीवन की लय, उसकी अपनी खांसी।

 

कहानीकार बिगुल के माध्यम से कहानी में बड़े अच्छे रूपक रचते हैं। जिनमें व्यंग्य है,जमाने की व्यथा है। करुणा है। फैंटेसी भी कहीं कहीं। बापू भी बिगुल बजाते हैं। कृष्ण और शिव भी बिगुल फूंकते हैं शंख है उनका बिगुल यहां। शंख फूंकना, बिगुल फूंकना। जन जागरण और इंकलाब का बिम्ब। पर गांधी के बिगुल फूंकने से अब कोई नहीं जुटता। पुलिस वाले जमा होते हैं तो वे भी अपनी नौकरी की वजह से। गांधी का बिगुल प्रभावहीन हो जाता है। कहानी की ध्वनि में यही संकेत है सांकेतिकता में बड़ी बातें हैं यहां।

हर मय्यत में दूसरों के लिए बिगुल बजाने वाले बाबू की हत्या हो जाती है। दंगों में एक बेबस लड़की की आबरू बचाने में दंगाइयों के चाकुओं से घायल बाबू बिगुलवाला शहीद हो जाता है।

श्रद्धांजलि स्वरूप बिगुल यहां भी बजाया जाता है। बाबू की जगह अब यह जिम्मेदारी ओंकार के पास है।

 

कथासंग्रह की पांचवी कहानी है 'कोंडवाड़ा' शीर्षक पहली बार में एकदम से समझ में नहीं आया लेकिन एकाध पेरा पढ़ते ही पता चल जाता है कि यह कहानी नगर प्रशासन के 'काँजी हाउस' जैसे विभाग के एक अदने कर्मचारी बशीर खाँ पर केंद्रित है। मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि मैं 'कोंडवाड़ा' शब्द से अब तक परिचित नहीं था। 'काँजी हाउस' को ही जानता,समझता था। शीर्षक के साथ साथ कहानी के निर्वाह को पढ़कर ही समझा जा सकता है कि कहानीकार प्रकाश कांत जी विषय से सम्बंधित समूचे वातावरण और जीवन से कितनी शिद्दत से जुड़कर कहानी रचते हैं। रचते ? शायद यह कहना उचित नहीं होगा। कहना चाहिए विषयवस्तु को जीते हैं और अपनी अभिव्यक्ति से पाठक को भी वहां ले कर चले आते हैं। लेखक के साथ साथ पाठक भी कहानी के पात्र बशीर खां का ही हिस्सा होकर दृश्य और उन्ही मनःस्थितियों से गुजरने लगता है।

 

हिंदी फिल्मों के चरित्र अभिनेता प्राण साहब के बारे में कहा जाता था कि वे किसी चरित्र को निभाने से पूर्व कुछ समय उसी परिवेश और उस तरह के व्यक्ति के साथ बिताते थे। बताते हैं शबाना आजमी ने भी 'मंडी' जैसी फ़िल्म में तवायफ की भूमिका के पहले किसी कोठे के वातावरण को कुछ दिन महसूस किया था।  स्वाभाविक और ईमानदार अभिव्यक्ति की यही एप्रोच मुझे प्रकाशकान्त जी की रचना में भी अनुभव होती है। निश्चित ही 'कोंडवाड़ा' जैसी रचना लिखते हुए बहुत संभव है उन्होंने काँजी हाउस के इंचार्ज और अदने कर्मचारी से दोस्ती की होगी। इस कहानी में उनके बारीक निरीक्षणों से यह बहुत आसानी से समझा जा सकता है। चाहे वह काँजी हाउस दफ्तर का बरसों पुराना 'इंक पेड' हो या रसीद कट्टे हों अथवा फटा पुराना खाकी कागज का इंद्राज रजिस्टर।

बशीर खाँ बहुत सीधा सादा लेकिन अपने काम के प्रति बहुत निष्ठावान और ईमानदार है। मुस्लिम है। नमाजी है। रोजे भी रखने की कोशिश करता है। लेकिन काम के आगे नमाजें और रोजे भी छूट जाएं तो छूट जाएं। इसके बावजूद या इसके कारण भी उसका शोषण है। ईमानदारी और कर्मठता के बावजूद सस्पेंड होता है। दंडित किया जाता है। यही कारण है कि कहानी के अदृश्य पात्र 'पाठक मास्टर' की बात ठीक लगती है, 'बशीर मियां,जब तुम्हारी यहां से रसीद कटेगी प्यारे,तो बिना तुम्हारे दस्तखत या अंगूठा निशानी लिए ही कटेगी।'

कहानी के पाठक के भीतर भी यह बात उतार देने में प्रकाश कांत सफल होते हैं।

कहानीकार ने बशीर खाँ, उसकी पत्नी,बेटे,खाला आदि के जरिये घनी तंग बस्तियों के जीवन और खासतौर से निम्न वर्गीय गरीब,परेशान मुस्लिम परिवारों की कठिनाइयों जीवन शैली की बड़ी मार्मिक तस्वीर 'कोंडवाड़ा' में चित्रित की है। कहानी तब और भीतर तक उतर जाती है जब संकेत होता है, यह दुनिया भी तो किसी बड़े 'कोंडवाड़ा' से कम नहीं।

 

‘भीतर बाहर से बंद इतिहास’, संग्रह की अपेक्षाकृत थोड़ी लम्बी कहानी है। संग्रहालय, पुरातत्व और इतिहास जैसे कर्कटी और प्रायः बोझिल विषय को प्रकाशकान्त जी ने संवेदनाओं की बूंदों से ऐसी स्निग्धता प्रदान की है कि पता ही नहीं चलता कि कब इतने सारे पन्ने पढ़ लिए गए। यह इस कहानी की खास विशेषता है। 'कोंडवाड़ा' कहानी के मुख्य किरदार बशीर खाँ की तरह ही इस कहानी का मुख्य पात्र भी एक साधारण सा समय की मार खाया  आम कर्मचारी और संग्रहालय अदना इंचार्ज है। प्रकाशकान्त जी के ज्यादातर पात्र समाज या व्यवस्था की नीचली पायदान से ही निकलकर आते हैं। बरसों से नगर निगम के उपेक्षित से संग्रहालय का कामकाज देखने वाला बुजुर्ग व्यक्ति खुद भी किसी खंडित मूर्ति या शिल्प की तरह ही होते जाता है। यहां तक कि उसी की बेटी के शब्दों में उनके कपड़ों से ही इतिहास की गंध आती है। इतिहास को लेकर कहानी में कई विचार पूर्ण संदर्भ बहुत प्रभावी रूप से किन्तु बहुत सहजता से बहते रहते हैं।

 

हमारा पूर्वाग्रह यही रहा है कि इतिहास आदि जैसे विषय में नीरसता होगी ही, कहानी से गुजरते हुए इसके ठीक उलट, बहुत से हिस्से में खासकर बेटी विनी के साथ के प्रसंगों को पढ़ते हुए हम बहुत हल्के हो जाते हैं। जगह जगह बहुत विनोदपूर्ण संवादों के कारण मुस्कुराने के साथ मन भाव विह्वल हो जाता है। चाहे गंदे अक्षरों को सुधारने में विनी की अनेक बहाने बनाने की आदत हो। उसी विनी की शादी के बाद माँ पिता को उसके द्वारा लिखे खत मिलने पर उसे बार बार पढ़ना और भीग भीग जाना हो।

बेटी कहती है, पिताजी आपके जूते लार्ड क्लाइव के हैं। घड़ी सुभाषचन्द्र बोस की। चश्मा चर्चिल का। फाउंटेन पेन भगतसिंह का और साइकिल वही जिसका इस्तेमाल सांडर्स को मारने के लिए लाहौर के पुलिस थाने के सामने किया गया था... पिता कहते हैं, तब तो मुझे संग्रहालय में रख देना चाहिए! तो फिर अभी आप कहाँ हैं। वहीं तो हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि आपको घर आने जाने की सुविधा मिली हुई है। बेटी हंसती है।

कितना निर्मल लेकिन कितना विचारित, सांकेतिक विनोद। ऐसे कई मार्मिक प्रसंग कहानी की स्निग्धता है। पाठक के भीतर करुणा का संचार करती अद्भुत रचना जो मूल विषयवस्तु का सूत्र प्रारम्भ से अंत तक थामे हुए रहती है।

'आपका 'आज' हमेशा बीते हुए कल में रहता है। आपका 'आज' कभी भी अपने में नहीं रहे।अब निकलो इस बीते हुए कल से और जितने 'आज' बचे हों, आज की तरह ही जी लो। आखिर कब तक मरे हुए कल में रहोगे।'

इन शुरुआती और सारगर्भित पंक्तियों से शुरू हुई यह कहानी अंत में दंगों का इतिहास दोहराती है। संग्रहालय का बूढा इंचार्ज अपने को खंडित मूर्तियों की ओट में छुपाते हुए स्वयं इतिहास हो जाता है। भीतर इतिहास बन्द होता है। बाहर संग्रहालय के गेट पर कोई ताला जड़ जाता है। इतिहास बाहर,भीतर दोनों तरफ से बंद हो जाता है।

 

'आजाद अटालेवाला' कहानी में लेखक का सूक्ष्म अवलोकन पुनः हमारा ध्यान खींचता है। अटालेवाला या वह कबाड़ी किस तरह सोता बैठता है,रहता है सब कुछ। उसका बोलना,टॉवेल लपेटकर कुल्ला करना। इसमें सबसे बढ़िया है अटाले में आई वस्तुओं से अपने जीवन की जरूरतों के लिए किया गया जुगाड़। जुगाड़ भी ऐसा जैसे किसी देह की शल्यक्रिया। बहुत रोचक चित्रण है। उसके द्वारा की जाने वाली चीजो की सर्जरी का चित्रण पढ़ने में बड़ा आनन्द आता है। टूटी फूटी बेकार वस्तुओं की हार्ट सर्जरी, किडनी ट्रांसप्लांट। अद्भुत है। जुगाड़ के रेडियो का बजना। पढ़कर ही आनन्द लिया जा सकता है। मैंने तो इस तरह का बारीक और सटीक चित्रण किसी व्यंग्य रचना में भी अब तक नही पढा है। बहुत खास और अद्भुत है यह वर्णन। 'आजाद अटालेवाला।

 

समाज के मामूली आदमी को अपनी कहानी का मुख्य पात्र बनाने की खास पसंद को आगे बढाते हुए जहां डॉ प्रकाशकान्त ने 'आजाद अटालेवाला' लिखी है वहीं 'अब इस तरह' में उनका नायक अपने ही कस्बे में बरसों बाद अपनी पोस्टिंग के दौरान लोहारी का काम करने वाले बुजुर्ग 'रहमत खाँ' से मिलकर बचपन के उस दौर की मार्मिक स्मृतियों को याद करके भीग भीग जाता है। इस कहानी में 'आधार कार्ड' जैसा मुद्दा भी अर्थपूर्ण सन्दर्भों  के साथ नजर आता है। संस्थाओं में बुजुर्ग परेशानियों के बीच नायक का  संवेदनशील रवैया आशा जगाता है

 

शीर्षक कथा 'वसंत का उजाड़' में लेखक छोटे कस्बे की एक संगीत गोष्ठी के आयोजन का सजीव चित्र खींचते हैं। बरसों बाद अपने ही कस्बे में लौटा एक सामान्य गायक पंडित रामप्रसाद शास्त्री अपने ही लोगों के बीच अपने हुनर  से उस गोष्ठी को यादगार बना देने के स्वप्न के साथ शानदार प्रदर्शन करते हैं किंतु इस खास 'वसंत गोष्ठी' में अचानक एसडीएम साहब जैसे माननीय के जाने से गोष्ठी में रसिको में 'उजाड़' की स्थिति बन जाती है। अपने शहर में अपनों के बीच हर सफल व्यक्ति को अपने श्रेष्ठतम प्रदर्शन और मान पाने की जैसी मानवीय तमन्ना रहती है.  इस कहानी में यही भावना सफलता से रेखांकित हुई है।

 

'लिपियों के तहखाने' कहानी हमें एक बार फिर ऐसे अतीत में ले जाती है जहां 'आजूबा' जैसे खास किरदार के बहाने कहानीकार मराठी में बने दस्तावेजो में 'मोड़ी' जैसी लुप्त लिपि की बात करते हैं। उस जीवन की भी बात करते हैं जो प्रायः अब लुप्त ही है। मोड़ी जानने समझने वाले आजूबा याने टी जी नान्देड़कर जैसे चरित्र भी अब दिखाई नहीं देते। मोड़ी लिपि की तरह ही स्मृतियों के तहखाने में जाने कहाँ दबे पड़े हैं। सम्भव है यह कहानी लेखक के वास्तविक जीवन से नजदीक का रिश्ता रखती हो। यही कारण है कि यह कहानी नहीं एक तरह से 'दृश्यनवीसी' है। एक एक दृश्य इस तरह लिखा गया है जैसे लेखक स्मृतियों के तहखाने में चाबियों का गुच्छा लेकर उतर पड़ा हो।

 

'आजादी का प्रसाद' का बूढा व्यक्ति हो या  'उजाड़ की तरफ' का पिता और उसकी की व्यथा, कहानियां मामूली आदमी की थकान और निराशा को ही करुणा के साथ बयान करती हैं। कहानी 'उजाड़ की उस तरफका मुख्य पात्र जीवन में उदासी और ऐसे ही अंधेरों और परेशानी से घिरा है। घर,दफ्तर,जीवन में हर तरफ अंधेरे में डूबा एक पिता किस तरह अखबारों में छपने वाले भविष्यफल देखता उजाले की आशा में जी रहा होता है। अद्भुत है। इसी तरह मुंहबोले रिश्तों के निर्वाह और सुख दुख में रक्त संबंधों से बेहतर साथ निभाने वाले आत्मीय मामाजी हैं संग्रह की अंतिम कहानी 'सूखते हुए दरख्त' में। 

 

इस संग्रह की सभी कहानियां समाज के बहुत मामूली लोगों के जीवन,उनकी मुश्किलों और उनके संघर्षों के सजीव चित्र कहे जा सकते हैं उनकी निष्ठा, ईमानदारी और सहज जीवन ही उनके कष्टों का कारण किस तरह बन जाता है यह सब बहुत संवेदनाओं के साथ ज्यादातर कहानियों में अभिव्यक्त हुआ है आलोचना के शब्दों में कहें तो करुणा,आक्रोश, सुख,दुःख सब कुछ कहीं भीतर ही भीतर बहता, रिसता रहता है. बिना किसी उद्घोष के लोगों की छोटी छोटी लड़ाइयों के बिगुल बनती ये कहानियां मामूली लोगों की उम्मीदों और सपनों के पूरा होने की आकांक्षा को भी रेखांकित करती हैं   

 

(पुस्तक : वसंत का उजाड़, लेखक : प्रकाश कान्त, प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन प्रा. लि., गाजियाबाद, कीमत : रु 350 )

 

ब्रजेश कानूनगो

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