Wednesday, October 1, 2014

बाज़ार के विरुद्ध

बाज़ार के विरुद्ध
डा. सुरेन्द्र वर्मा

आजकल हिन्दी साहित्य में, विशेषकर हिन्दी कविता में, बाज़ार के विरोध में एक सुविचारित मुहिम-सी चल गयी है. सतही तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि मानों सभी साहित्यकार बाज़ार के वजूद को ही समाप्त कर देना चाहते हैं. बजाहिरा यह एक नामुमकिन मुहिम है. हर कोई अच्छी तरह से जानता है कि बाज़ार के बिना काम    नहीं चल सकता. हमारी आवश्यकताएं आखिर बाज़ार ही पूरी करता है. छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी, ज़रूरी और गैर-ज़रूरी, आवश्यक आवश्यकताएं, सुविधाप्रदायक आवश्यकताएं और विलासता की वस्तुएं हमें सभी चीजें बाज़ार से ही प्राप्त होती हैं. बाज़ार का उन्मूलन असंभव है. बाज़ार हमारी जीवन-चर्या का एक अंग है. बाज़ार ने हमारी भाषा को भी समृद्ध किया है. न जाने कितने मुहावरे बाज़ार से हमें प्राप्त हुए हैं. हम ‘बाज़ार करते’ हैं, बाज़ार ‘गर्म होता” है, ‘मंदा पड़ता’ है, बाज़ार ‘चढ़ता’ है, बाज़ार “लगता” है. बाज़ार में “आग लग जाती है”, इत्यादि. तरह तरह के बाज़ार हैं, मछली बाज़ार, भिन्डी बाज़ार, शेयर बाज़ार, बाजारे हुस्न. यहाँ तक कि कुछ चीजें, कुछ व्यक्ति “बाजारू”  हो जाते हैं. लोफर, लफंगे बाजारू है. वेश्याएं बाजारू हैं. सच तो यह है कि हम बाज़ार से छुटकारा पाना चाहें तो भी पा नहीं सकते. लेकिन बाज़ार के विरुद्ध मुहिम लगातार जारी रहती है.

     बहुत पहले कबीर लुकाठी हाथ में लेकर बाज़ार में खड़े हो गए थे और उन्होंने ललकारा था जो अपने घर को जला सके वही मेरे साथ आए. सहगल का एक बहुत लोकप्रिय गीत है, ‘बाज़ार से गुज़रा हूँ खरीदार नहीं हूँ – दुनिया का हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ.’ ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है ये सब बाज़ार के विरुद्ध खड़े हैं. उस ज़माने में तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत के बाज़ार में नहीं आईं थीं, फिर बाज़ार के विरोध में ये स्वर क्यों? यदि हम तनिक ध्यान से देखें तो यहाँ बाज़ार का अर्थ हाट-बाज़ार से है ही नहीं. इनका स्वर आध्यात्मिक है. बाज़ार यहाँ दुनिया का प्रतीक है. यह स्वर दुनिया के प्रलोभनों से हमें बचाने की सलाह देता है. यह कहता है कि आप “दृश्य” में शरीक न हों, ‘दृष्टा’ बने रहें. तमाशे का हिस्सा न बनें, बिना किसी लाग-लगाव के बस, दुनिया का तमाशा देखें. ऐसे उदाहरणों की भ्रामक व्याख्या ही हमें बाज़ार की खिलाफत सी लगने लगती है.

     जो दुनियादार है और जो दुनिया में रहना चाहता है उसके लिए तो बाज़ार ज़रूरी है. पूंजी के प्रसार से पहले हाट-बाज़ार एक ऐसा स्थान हुआ करता था जहाँ व्यक्ति अपनी रोज़मर्रा की चीजें खरीदने निकलता था. घी-तेल, अनाज, सब्जी, कपड़ा-लत्ता आदि. लेकिन आज का बाज़ार हमारी आवश्यकताओं को अंधाधुंध बढाने में लगा हुआ है. कुछ व्यक्तियों की क्रयशक्ति भी बढ़ गयी है, व्यक्ति की बढी हुई क्रय शक्ति को बाज़ार पैसा फेंकने के लिए मजबूर कर रहा है. जिनके पास पैसा है उनमें आज हमें दो तरह के लोग दिखाई देते हैं – एक तो वे हैं जो अपने पैसे से ज़रूरत – बेज़रूरत का सामान इकट्ठा करने में पैसा फेंक रहे हैं और इस तरह अपने खुद के खालीपन को भर रहे हैं. ये अपने पैसे का बेहूदा दिखावा करते हैं और दूसरों के सामने स्वयं को अधिक संपन्न दिखा कर अपने झूठे अहम् को पुष्ट करते हैं. दूसरे वे लोग हैं जो अपने पैसे की शक्ति से इतना अविभूत हैं कि वे पैसे को ही सर्वशक्तिमान मानकर पैसा खर्च ही नहीं करते और उसे किसी भी प्रकार अधिक से अधिक बढाने की फ़िक्र में रहते हैं. ज़ाहिर है ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ समाज के लिए हानिकारक हैं. आखिर इन प्रवृत्तियों के लिए ज़िम्मेदार कौन है? इसके लिए ज़िम्मेदार आज की घोर पूंजीवादी व्यवस्था ही है जिसमें बाज़ार का अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र का अर्थशास्त्र बन गया है.
     समृद्ध देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियां बाज़ार ढूँढ़ने के लिए विकासशील देशों को अपना निशाना बनाती हैं. शुरू शुरू में उन्हें समृद्धि के सपने दिखाती हैं. लेकिन एक बार पैर पसारने के बाद स्थानीय बाज़ार को हड़प  जाती हैं. और खरीदारों को आर्थिक रूप से अपने बाज़ार की चमक-दमक पर पूरी तरह निर्भर कर लेतीं हैं. आज भारत में बाज़ार का अत्यधिक विस्तार हो गया है और वर्त्तमान की अधिकाँश सामाजिक और नैतिक विकृतियों के मूल में बाज़ार का यह विस्तार ही है. पैसे और बाज़ार का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है. जिसके पास पैसा है, वही बाज़ार को सार्थकता प्रदान कर सकता है. बाज़ार उसी को आकर्षित भी करता है. लेकिन जिनके पास काफी पैसा नहीं है, आज का बाज़ार उन्हें भी आकर्षित किए बगैर नहीं रहता. वे इसी बाज़ार के शिकार होने के लिए किसी भी प्रकार से, नैतिक या अनैतिक, पैसा बनाने के लिए बाध्य हो जाते हैं. बाज़ार भी अपनी तरफ से उन्हें लुभाने का कोई तरीका नहीं छोड़ता. वह इंसान की आदिम प्रवृत्तियों को उत्तेजित करने के लिए ‘बाजारूपन’ पर उतर आता है. हर वस्तु को बाजारू बना देता है. आदमी की शर्म, ईमानदारी, गैरत, यहाँ तक कि विद्या तक, सब बिक जाती हैं ताकि बाज़ार फलता-फूलता रहे.

        आज के साहित्यकार ने बाज़ार के इस बाजारूपन को बहुत पैनी नज़र से देखा है और वह इसकी पोल खोलने के लिए शब्दों की मितव्ययता नही करता. बाज़ार की नीचता और उसकी पाशविक ताकत को उसने  भली-भाँति  समझा है और उसे प्रस्तुत करने में कोई कोताही नहीं की है.

          भारत का मध्य-प्रदेश एक बहुत विकसित राज्य नहीं है. लेकिन बाज़ार की चमक-दमक और बाजारवादी प्रवृत्तियों ने वहां भी अपना जाल बिछा लिया है. वहीं के महानगर इंदौर के एक कवि हैं, ब्रजेश कानूनगो. यों तो मुख्यत: उनकी रूचि बाल साहित्य और व्यंग्य लेखन में है, लेकिन उनकी कविताओं का एक संग्रह ‘इस गणराज्य में’ अभी हाल ही में (अगस्त २०१४) आया है. इस संग्रह में जिस प्रकार उन्होंने बाज़ार के बढ़ते वर्चस्व और उसके हानिकारक परिणामो को रेखांकित किया है वह अद्भुत है. उनका कहना है कि आज बाज़ार की गिरफ्त में आया आदमी, ख़ास तौर पर युवा-वर्ग, आदमी न रहकर एक ‘ग्लोबल प्रोडक्ट’ हो गया है, -

भरा होता है उसका बटुआ                                                              जादुई कार्डों की बहुमूल्य संपदा से                                                   दुनिया खरीद लेने का विश्वास                                                          चमकता है उसके चहरे पर                                                             सरकारी करेंसी भी थोड़ी-बहुत होती है उसके पास                                       सत्कार, घूस और डोनेशन में                                                         बड़ी सहूलियत रहती है इससे ...                                                        बहुत पहले से छोड़ दिया है उसने                                                       दकियानूसी पारंपरिक भोजन करना                                                 
फास्ट फूड और बर्गर मिटाते हैं उसकी भूख                                          बहुराष्ट्रीय कम्पनी के प्रमाणित साफ्ट ड्रिंक से                                             बुझाता है अपनी प्यास को....                
और संवेदनशील इतना कि                                           
शेयर मार्केट की तनिक–सी घट-बढ़ से                                                   बढ़ जाती है उसके दिल की धड़कन         (पृष्ठ ७६-७७)

    वस्तुत: युवा मन बाज़ार की बाहरी चमक-दमक से इतना अविभूत हो जाता है कि वह इस चमक के पीछे का मंतव्य समझ ही नहीं पाता.
 ‘सांझ के उजाले और रात के यौवन की पोल / खुलती है सूरज के उजाले में’ लेकिन बाज़ार तो
चलन के मुताबिक़                                                                  सजता है...रात के अँधेरे में                                                            नगरवधुओं की तरह तरोताजा होकर                                                    दु:खों को रोशनी के मेकअप से छिपाते हुए                                                प्रस्तुत होते हैं प्लास्टिक के पेड़.         (पृष्ठ ५८)

     इस बाज़ार में सारा सौन्दर्य ‘सौदागरों की दृष्टि’ पर निर्भर है. भोली-भाली गाँव की सुन्दर कन्या, जो अभी तक ‘सुन्दरता के तमाम (देशज) प्रयासों और गहरे सौन्दर्य बोध के बावजूद’ सौन्दर्य प्रति-योगिता में शामिल नहीं है, को कवि सावधान करता है कि 

‘कजरी तुम्हें सुन्दरी घोषित करने का षडयंत्र प्रारम्भ हो गया है’ अत: यदि तुम बचना ही चाहती हो सौदागरों के चंगुल से तो,

छुप जाओ कजरी किसी ऐसी जगह
जहां सौदागरों की दृष्टि न पहुंचे.       (पृष्ठ ५०)

ब्रजेश कानूनगो कहते हैं इस बाज़ार में सौन्दर्य ही नही ज्ञान का भी यही हाल है -

छोटी सी पगडंडी जाती है इस चमकदार नए बाज़ार में                                       वस्तुओं की तरह जानकारियों का हो रहा है लेन-देन                                        ज्ञान के लेबल लगे खाली कनस्तरों के इस व्यापार में                                       बेच रहे हैं चतुर सौदागर अपना माल                                                    पूरे सलीके के साथ
एक भीड़ है बाज़ार में आँखों पर पट्टी बांधे                                                जो ठगे जाने के बावजूद बजा रही है तालियाँ                                             बार बार लगातार    (पृष्ठ ३७-३८)

     एक संवेदनशील बेचारा पिता कैलीफोर्निया गई अपनी बच्ची को नक़्शे में ढूँढ़ता है. ‘चालीस डिग्री अक्षांश और / एक सौ दस डिग्री देशांतर के बीच में / यहाँ इधर, थोड़ा हटकर, बस यहीं / यही तो है कैलीफोर्निया,नक़्शे की रेखाओं से होता हुआ                                           पहुँच रहा है पिता का हाथ                                                             बेटी के माथे पर.                 (पृष्ठ २९)

     इस बाज़ार में हर चीज़ नीलाम हो रही है, 
‘जाने क्या क्या बिक जाता है चुपचाप’ और मज़ा यह है कि ‘सामान और खरीदार इतने सजे-धजे / कि मुश्किल है उनमें भेद करना.’ पहले भी खरीदी जाने वाली वस्तुओं की नीलामी सरे बाज़ार, बोल कर हुआ करती थी. लेकिन कवि ब्रजेश जी कहते हैं

नीलामी का अब / दिखाई नहीं देता बाज़ार / चिल्ला चिल्लाकर / बोलियाँ नहीं लगाता कोई   खामोशी से नीलाम हो जाते हैं बेटे / सहारों में सजकर / भूखे बच्चों के लिए /                         नीलाम हो जाती हैं विवश माएं / बच नहीं पाते उर्वर पद और शहर /                               गोपनीयता नीलाम हो जाती है गुपचुप / गिरती सरकार को बचा लेते हैं / नीलाम हुए विधायक / अब शोर नहीं होता / नीलामी के अदृश्य बाज़ार में / जाने क्या क्या बिक जाता है चपचाप.      (पृष्ठ 24)

          इसी प्रकार निबंधकार सत्येन्द्र चौधरी ठीक ही कहते हैं कि आजउपभोक्तावादी समाज में चीजों का अधिकतम उत्पादन और उपयोग ही विकास की एक मात्र कसौटी है. लिहाज़ा समाज में वस्तुएं सर्वोपरि होती जा रही हैं और उनपर ज्यादह कब्ज़ा जमाना ही मानव जीवन का उद्देश्य हो जाता है. व्यक्ति किसी भी क़ीमत पर वस्तुओं को पाना चाहता है और उनपर मरना ही उसका जीवन हो जाता है. ...वस्तुओं का महत्त्व ज्यों ज्यों समाज में बढ़ता जाता है वस्तुएं आदमी पर हावी होती जाती हैं. धीरे धीरे आदमी वस्तु का इस्तेमाल नहीं करता, वस्तु आदमी को इस्तेमाल करने लगती है... व्यक्ति के सबसे महत्त्वपूर्ण गुण और विशेषताएं विवेक, बुद्धि, आत्मा आदि, सामग्री में बदल जाते हैं. वे बिक्री के लिए उपलब्ध हैं. उन पर दामों की चिट पडी है. और वे शो-केस में सजे हैं....व्यक्ति में वस्तु तत्व का इजाफा होते जाने के साथ ही उच्चतर मानसिक क्रिया-कलापों के प्रति उसमे एक विराग उपजता है. या उस चेतना का क्षय होता है जो उसमें रूचि ले सके. कला, साहित्य, संगीत उसे सकू नहीं दे पाते, उसके दिमाग के संवेदनशील तंतु कुंद होने लगते हैं.’ (प्राची के स्वर, स्टेट बैंक ऑफ़ इंदौर, २००३)

       यही बात लगभग राज किशोर ने भी अपने निबंध बाज़ार, साहित्य और हिन्दी लेखक’ (प्राची के स्वर) में कही है. वे बत्ताते हैं कि साहित्य मूलत: एक बाज़ार विरोधी घटना है. जिस साहित्य की हम निंदा करना चाहते हैं, उसे बाजारू-साहित्यकहते हैं. बाजारू साहित्य वस्तुत: साहित्य है ही नहीं. वह साहित्य की नक़ल है. कबीर भले ही बाज़ार में खड़े थे लेकिन वे लुकाठी भी लिए हुए थे. कबीर को, राजकिशोर जी कहते हैं, मजबूर होकर बाज़ार में हिस्सेदारी करनी पड़ती थी. वे कपड़ा बुनते थे, वह बाज़ार में ही बिकता था. और उनका कच्चा माल भी बाज़ार से ही आता था. लेकिन यह उनकी विवशता थी. बेशक उनके समय में व्यक्ति और व्यक्ति के सम्बन्ध बाज़ार से निर्धारित नहीं होते थे. फिर भी वे जानते थे कि बाज़ार घरेलू, भावात्मक संबंधों को बिगाड़ता है. इसीलिए उन्होंने केंद्र में ईश्वर रखा और कहा, जो शख्स अपना घर जलाए वह मेरे साथ आए. पर आज मनुष्य को ईश्वर की ज़रूरत नहीं रह गई है. उसके लिए तो लगता है बाज़ार ही ईश्वर हो गया है. ऐसे में एक सच्चे लेखक का उद्देश्य बाज़ार की शक्तियों को नष्ट करके व्यक्तियों के बीच एक घरेलू रिश्ता कायम करना ही हो सकता है.

     लेकिन मुश्किल यह है कि लेखक के नियंत्रण में न तो भौतिक साधन हैं, और न ही वह ऐसा नियंत्रण कायम कर सकता है. फिर भी वह पदार्थ और मनुष्य, और मनुष्य और मनुष्य के रिश्तों को समझना और उनके बेहतर तथा मानवीय रूपों का संधान करना चाहता है. वह रचनाकार होता है, उत्पादक नहीं. अत: वह यही चाह सकता है कि उत्पादन रचनात्मक बने.रचनात्मक उत्पादन मानवीय उत्पादन होता है. उसमें उत्पादक और उपभोक्ता के रिश्ते नहीं होते. मनुष्य की वास्तविक आवश्यकताओं की मानवीय पूर्ती के रिश्ते होते हैं. इससे बाज़ार की सृष्टि नहीं होती. बल्कि सामाजिक रिश्ते सघन होते हैं. लेखक का लक्ष्य ऐसा ही समाज होता है. हाँ, यह ज़रूर है, जैसा कि राजकिशोर जी आग्रहपूर्वक कहते हैं, लेखक ऐसे समाज का  ‘द्रष्टा है, कार्यकर्ता नही’, सहगल ने यही तो गाया था बाज़ार से गुज़रा हूँ, खरीदार नहीं हूँ – दुनिया का हूँ, दुनिया का तलबगार नहीं हूँ.
     आज का लेखक इसी कोशिश में है. वह मनुष्य की ‘कृत्रिम’ आवश्यकताएं, जो बाजारवाद बढ़ाने में जुटा है, उनके विरुद्ध है, और वास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ती के लिए बाज़ार का आंशिक समर्थन करता है क्योंकि इससे तो सामाजिक रिश्ते किसी कदर मज़बूत ही होते हैं. अत: जब हम कहते हैं कि आज का साहित्य बाज़ार विरुद्ध है तो लेखक वस्तुत: बाज़ार का नहीं, बाजारवाद का विरोधी है, ऐसा समझना चाहिए.

      अक्सर यह भ्रम हो जाता है कि आज का लेखक, साहित्यकार बाजार को ही समाप्त कर देना चाहता है. ऐसा नहीं है. वह बाज़ार को नहीं, बाजारवादी वृत्ति पर काबू चाहता है. वह बाज़ार को सर्वशक्तिमान ताकत बनाने से रोकना चाहता है. वह बाज़ार के ‘बाजारूपन’ पर लगाम चाहता है. उसका एतराज़ बाज़ार का बेहूदा हो जाने पर है. वह बाज़ार को मर्यादित, सीमित करने का इच्छुक है. और इसका अर्थ है की व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं का बाज़ार के इशारे पर अंधाधुंध इजाफा न करे, और वह बाज़ार के नाम पर अपनी मानवीय भावनाओं और मर्यादाओं को अक्षुण्य बना रहने दे,  बाज़ार की बलिवेदी पर वह अपनी नैतिकता की बलि न दे. आज का कवि या साहित्यकार जब बाज़ार का विरोध करता है, बाज़ार की आलोचना या समीक्षा कर रहा होता है, तो उसका आशय यही है कि बाज़ार ज़रूरत की एक वस्तु है और उसे मनुष्य की मानवी ज़रूरतों के दायरे में ही रहना चाहिए. भारतीय चिंतन में मूल्यों के त्रिवर्ग की जो कल्पना की गयी है, उसमे धर्म, अर्थ और काम का उल्लेख है. लेकिन अर्थ और काम मूल्यवान तभी हैं जब वे धर्म से मर्यादित हों. अमर्यादित बाज़ार उस मनुष्य को ही नष्ट कर देता है जिसकी ज़रुरत के लिए वह बना है. बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेट ने आज बाज़ार को भस्मासुर बना दिया है. अकूत ताक़त का प्यासा यह राक्षस उस मनुष्य (की मनुष्यता) के सिर पर ही हाथ रखकर उसे ख़त्म करने पर आमादा है जिससे कि उसने यह ताकत प्राप्त की है.

n  डा.सुरेन्द्र वर्मा                                   
१० एच आई जी  / १, सर्कुलर रोड, इलाहाबाद – २११००१                                    (मो.) ०९६२१२२२७७८








   


Saturday, August 23, 2014

चमकदार व्यंग्य-मोतियों का खज़ाना है- सूत्रों के हवाले से

पुस्तक समीक्षा
सूत्रों के हवाले से (((
चमकदार व्यंग्य-मोतियों का खज़ाना है
डॉ.सुरेन्द्र वर्मा  

कुछ सूत्र गणित में के होते हैं. कुछ ज़िंदगी के होते हैं. लेकिन कुछ सूत्र ऐसे भी होते हैं जो खोज-खबर लाते हैं. ब्रजेश कानूनगो एक व्यंग्यकार भी हैं यह मुझेसूत्रों के हवाले सेही पता चला. वैसेसूत्रों के हवाले सेब्रजेश कानूनगो का दूसरा व्यंग्य संग्रह है. इससे पहलेपुन: पधारेंआ चुका है.पुन: पधारेंशीर्षक ने ही उस सूत्र का काम किया था कि यह सम्भावनाओं से भरा लेखक अब रुकेगा नहीं. फिर से आएगा, बार बार आयेगा.
ब्रजेश जी कहते हैं, सूत्र बस सूत्र होते हैं. उनका कोई नाम नहीं होता. वे अदृश्य रहकर अपना काम करते हैं. इन्हें कोई जान नहीं पाता. न ही उनके तौर तरीके पर कोई सवाल करना संभव होता है. फिर भी इन पर विश्वास करना हमारे संस्कारों का हिस्सा है. टीवी इन्हीं सूत्रों के हवाले से हमें खबरें परोसता है. ये सूत्र ही हमारे जीवन को रसमय बना रहे हैं, ‘यह क्या छोटी-मोटी बात है!
ब्रजेश जी कपोल कल्पित बातों की खूब धज्जियां उड़ाते हैं. निष्क्रियता के मारे एक कवि महोदय ने अरसे से कुछ लिखा नहीं था. किसी ने जब उनसे पूछ लिया, कविराज बहुत दिन हो गए कहीं नज़र नहीं आए, क्या बात है आजकल कुछ छप नहीं रहा है? तो कविराज मुस्कराकर बोले, भई क्या बताऊँ, बहुत व्यस्त हूँ, इन दिनों एक उपन्यास लिख रहा हूँ! थोड़ी प्रतीक्षा तो आपको करना ही पड़ेगी. ब्रजेश जी कहते हैं, कविराज के साथ मैं भी अब अच्छी तरह जान गया हूँ कि हरेक लेखक अक्सर कभी कभी उपन्यास लिखने में क्यों इतना व्यस्त हो जाता है? (!)
यह तो सभी जानते हैं कि मौसम के लिहाज़ से हवाएं अपना रुख बदलती रहती हैं. गरमियों में हवा गर्म हो जाती है और जाड़ों में सर्द. लेकिन हवा बनाई भी तो जा सकती है. ब्रिजेश जी बताते हैं कि हवा बनाना भी एक कला है और जो लोग इस कला में माहिर होते हैं उन्हें वेहवाबाज़कहते हैं. पहले लोग हवा बनाने के लिए चौपाल या हाट-बाज़ार में मजमा लगाते थे, आज सोशल मीडिया पर हवाबाजों की आंधियां चल रही हैं. और हवाबाजों की दृष्टि के भी क्या कहने? साफ़ साफ़ देख लेते हैं कि बाज़ार में अभी किसकी हवा चल रही है और कैसे नई हवा बनाई जा सकती है.
आखिर आप अपने नेताओं से, जिन्हें आपने मतदान देकर जिताया है, यह उम्मीद ही क्यों पालते हैं कि वे आपके हितों की रक्षा करेंगे. ब्रजेश जी बताते हैं कि यह तो दान की संस्कृति के बिलकुल विरुद्ध है. जब दान ही कर दिया तो उसके फल की आकांक्षा ही व्यर्थ है. यह आकांक्षा मतदान के स्वर को भी बेसुरा बना देती है. यह तो ऐसा ही हुआ की हम गोदान के बाद ग्राही से दूध की आशा रखें. है न अटूट तर्क!
ब्रजेश जी के पास चमकदार व्यंग्य-मोतियों का अटूट खज़ाना है. राजनीति में इधर हवा बनाई गई किअच्छे दिन आने वाले हैं.लेखक की शयन कक्ष में अवस्थित पूर्व दिशा की खिड़की एक बार शायद रात को खुली रह गई. यकायक सुबह सुबह की पहली किरण और ताज़ी हवा का झोंका आया तो उसकी नींद खुल गयी. उसे लगा, अच्छे दिन की शुरूआत ऐसे ही होती है. यह बिस्तर से उठता है और अच्छे दिन की पहली दोपहर और पहली शाम से रूबरू होने जुट गया. यह बताता है कि हर रात के बाद उसका पहला अच्छा दिन हर रोज़ ही तो उसकी बाट जोहता है. बेचारेआने वाले अच्छे दिनके नारे की तो हवा ही निकल गयी.
एक बार ब्रजेश जी अपनी गाढ़ी में प्रजातंत्र की सड़क पर बड़े आराम से कैलाश खेर के सूफियाना प्रेम गीतों के रस में सराबोर होते हुए सफ़र का मज़ा ले रहे थे कि कमबख्त कुत्ते के एक पिल्ले ने सारा मज़ा किरकिरा करके रख दिया. यह तो अच्छा हुआ सामने कुत्ते का पिल्ला ही आया. बड़े शातिराना अंदाज़ में वे बताते हैं, ’खुदा न खास्ता कोई आदमी का बच्चा आगया होता तो--- हम तो सलमान ही हो गए होते’.      
कहावतें बनाने और गढ़ने में व्यंग्यकार का मुकाबला नही. क्या पताहम तो सलमान हो गए होतेकभी रवायत में आकर कहावत ही बन जाए! कहावत का ऐसा है कि वे जाने अनजाने बन ही जाती हैं. जिन कहावतों के बनने की काफी संभावना है बल्कि ब्रजेश जी के अनुसार तो वे बन ही चुकी हैं, उनके कुछ नमूने वे प्रस्तुत करते हैं – ‘राजा की निकलेगी बरात’, ‘दाढी के पीछे क्या है’, यागुस्से में नेता कागज फाड़ता है’, इत्यादि. आज तो हम इन नई कहावतों का स्रोत पहचान जाते हैं, लेकिन समय के साथ साथ इनका उद्गम धुंधलाने लगेगा. ब्रजेश जी पूछते हैं, हो सके तो ज़रा पता लगाइए, वह कौन सा ज़माना था जब राधा को सब्जी बघारने के लिए दो चम्मच तेल के इंतज़ाम में हाथ पैर नहीं मारना पड़ते थे बल्कि नौ मन तेल के अभाव में वह  नाचने से इनकार कर दिया करती थी.
ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत’, संस्कृत की एक पुरातन कहावत है. ब्रजेश जी इसकी व्याख्या कहते हुए कहते हैं, ‘कर्ज़, घी, और स्वास्थ्य के बीच बड़ा सीधा सा प्रमेय होता है जिसे सिद्ध करने के लिए किसी पायथागोरस के पास जाने की आवश्यकता नहीं है. यह स्वयं सिद्ध है. स्वास्थ्य वर्धन के लिए क़र्ज़ लेना लगभग अनिवार्य है. नागरिकों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर सरकार योजनाएं बनाती हैं. ऋण प्रदान करती हैं. योजनाओं के स्वास्थ्य के लिए भी पर्याप्त घी की व्यवस्था रखी जाती है ताकि योजनाएं अच्छे से फल-फूल सकें. देश यही चाहता है की हर नागरिक क़र्ज़ लें और स्वस्थ रहें.और हम हैं कि क़र्ज़ के नाम पर खांमखा दुबले हुए जाते हैं.
आपने चिकित्सा की अनेक विधाएं देखी होंगी. एलोपेथ, होम्योपैथ, एक्यूपंचर, स्पर्श, वाष्प, स्पर्श आदि. लेकिन ब्रजेश जी एक बिलकुल नई थेरेपी का ज़िक्र करते हैं. इसे आप चाहें तोसड़क-थेरेपीकह सकते हैं. वे कहते हैं, ‘मरीज़ पुराने कब्ज़ से परेशान हो, उसे शहर की (गड्ढों भरी) विशिष्ठ सड़क पर पांच दिन नियमित स्कूटर यात्रा के लिए परामर्श दिया जाए, छठे दिन वह स्वयं को हल्का महसूस करने लगेगा. किसी मरीज़ की प्रसूति में विलम्ब हो रहा हो और शल्य क्रिया संभव न हो तो ऑटोरिक्शा से किसी दूरस्त चिकित्सालय ले  जाएं, सामान्य प्रसूति सहल रूप से संपन्न कराई जा सकती है. कोई व्यक्ति बचपन से हकलाता हो, बोलने में शब्द गले में ही अटक जाते हों, उसे एक माह तक शहर की विशिष्ठ सड़क पर तेज़ गति से मोपेड चलाने का परामर्श दें, शब्द क्या चीत्कार निकालने लगेगी.और भी अनेक रोग हैं जिनकी चिकित्सा के लिए यह सड़क थेरेपी मुफीद हो सकती है. बसडाक्टर को थोड़ी सूझ बूझसे काम लेना होगा. शहर की खस्ताहाल सडकों पर यह एक ज़बरदस्त कटाक्ष है.
ब्रजेश कानूनगो के पास ऐसे ऐसे नुस्खे हैं कि बस पूछिए मत. वेसदाचार का टीकालगाने की सलाह देते हैं, ‘योगासन के योगबताते हैं, ‘आने जाने की रीतसमझाते हैंचिल्लर के आंसूपोंछते हैं, मूर्खता पर गर्व करना सिखाते हैं, ‘झांकी प्रबंधनके गुरु बताते है, ‘भ्रष्टाचार्य को मान्यतादिलाने का अभियान छेड़ते हैं, और भी न जाने क्या क्या ! जाइएगा नहीं, सूत्रो के हवाले से पता चला है वे दोबारा जल्दी ही आएँगे. **
(व्यंग्य संग्रहसूत्रों के हवाले से लेखक ब्रजेश कानूनगो , पार्वती प्रकाशन, इंदौर, ,प्र.)

समीक्षा- डॉ.सुरेन्द्र वर्मा
10, एच आई जी / 1, सर्कुलर रोड , इलाहाबाद – 211001  

  
     


Sunday, August 17, 2014

इस गणराज्य में (कविता संग्रह) : जीवन में बसती हैं कविताएँ

समीक्षा
इस गणराज्य में (कविता संग्रह)  

जीवन में बसती हैं कविताएँ
सुरेश उपाध्याय


‘इस गणराज्य में’ अभी तक व्यंग्य लेखक के रूप में अपनी पहचान रखने वाले श्री ब्रजेश कानूनगो का पहला कविता संग्रह है, जो दखल प्रकाशन,दिल्ली से इस साल (2014) आया है। संग्रह की अधिकाँश कविताएँ पढते हुए समकालीन कविता के मूल प्रवाह में रहते हुए हमारे समय से मुठभेड होती है। संग्रह पढते हुए लगता है कि ब्रजेश का कवि उनके व्यंग्यकार से थोडा-सा आगे निकलता दिखाई देता है। वे कवि के रूप में कहीं उन्नीस नही लगते।

ब्रजेश कानूनगो की कविताओं पर बात करने के लिए कवि के अपने परिवेश और क्रमिक विकास को समझना एक बेहतर उपाय हो सकता है। कविताओं में उनकी सरल भाषा, सहज सम्प्रेषणीयता, अपने आस-पास के सन्दर्भों से उठाई विषय वस्तु और प्रतिबद्ध विचारधारा का दर्शन उसी पृष्ठभूमि के कारण है, जिसके कारण उनके अपने रचनाकार का भी विकास हुआ है। अखबारों में सम्पादक के नाम कई वर्षों तक पत्र और जनरुचि के कॉलमों में लगातार लिखते हुए ब्रजेश की भाषा ऐसी भाषा बन जाती है जो आम पाठक तक बहुत सहजता से पहुंचती है। बच्चों के लिए कहानियाँ और गीत लेखन के अभ्यास के कारण उनकी कविताओं को सहृदय पाठकों के मन तक पहुंच जाने में कोई खास दिक्कत नही होती। व्यंग्य लेखन का लम्बा अनुभव उनकी कविताओं में भी तंज और कटाक्ष करता नजर आता है। बैंक कर्मियों और तंग बस्ती के बच्चों तथा साहित्य और समाज के क्षेत्रों में एक प्रतिबद्ध एक्टिविस्ट की तरह काम करते रहने से उनकी कविताओं में मनुष्य के प्रति प्रगतिशील विचारधारा का अंतरधारा की तरह समावेश दिखाई देता है।

ब्रजेश की कविताओं का फलक काफी व्यापक है, अपने घर-आँगन से लेकर वैश्विक तत्व व दृश्य और तमाम चिंताओं तक वह फैला हुआ है। पत्थर की घट्टी, पुरानी लोहे की आलमारी, मेरा मुहल्ला, रेडियो की स्मृति आदि कविताओं के माध्यम से वे हमारी परम्परा और अतीत की मधुर स्मृतियों की सैर करवाते हैं वहीं मानवीय अंतर्सम्बन्धों की महत्ता को भी रेखांकित करते हैं।

गुम हो गए हैं रेडियो इन दिनों
बेगम अख्तर और तलत मेहमूद की आवाज की तरह

कबाड मे पडे रेडियो का इतिहास जानकर
फैल जाती है छोटे बच्चे की आँखें

न जाने क्या सुनते रहते हैं
छोटे से डिब्बे से कान सटाए चौधरी काका
जैसे सुन रहा हो नेताजी का सन्देश
आजाद हिन्द फौज का कोई सिपाही

स्मृति मे सुनाई पडता है
पायदानों पर चढता
अमीन सयानी का बिगुल
न जाने किस तिजोरी में कैद है
देवकीनन्दन पांडे की कलदार खनक
हॉकियों पर सवार होकर
मैदान की यात्रा नही करवाते अब जसदेव सिंह

स्टूडियो में गूंजकर रह जाते हैं
फसलों के बचाव के तरीके
माइक्रोफोन को सुनाकर चला आता है कविता
अपने समय का महत्वपूर्ण कवि
सारंगी रोती रहती है अकेली
कोई नही पोंछ्ता उसके आँसू 

(रेडियो की स्मृति)

इस गणराज्य में आजादी,नक्शे में केलिफोर्निया खोजता पिता,मनीप्लांट की छाया,क्विज, छुप जाओ कजरी,प्लास्टिक के पेड, राष्ट्रीय शोक,ग्लोबल प्रोडक्ट जैसी कविताओं के माध्यम से आर्थिक भूमंडलीकरण और उससे उपजी बाजारवाद व उपभोक्तावादी नीतियों की जटिलताओं, समाज और पर्यावरण पर पडने वाले विपरीत प्रभाव पर व्यंग्यात्मक लेकिन सजग काव्य टिप्पणियाँ की गई हैं।
कितना सहज है कि
वे और मैं अब अलग नहीं लगते

वे सुझा रहे हैं कि क्या  होना चाहिए मेरा भोजन
मैं वही देखता हूँ
जिसे कहा जा रहा है कि यही सुन्दर और वास्तविक है

मैं नाच रहा हूँ ,गा रहा हूँ उसी तरह
जैसे झूम रहे हैं साहूकार
बोल रहा हूँ सौदागरों की भाषा
बेचा जा सकता है हर कुछ जिसकी मदद से

मुझे पता नहीं है कि
कहाँ लगा है मेरा धन
और कितनी पूँजी लगी है परदेसियों की
मेरा घर सजाने में

मेरा शायद हो मेरा
जो समझता था उनका
लगता ही नही कि अपना नहीं था कभी

उनके निर्देशों के अनुरूप चलती हैं मेरी सरकारें
नियम और कानून ऐसे लगते हैं
जैसे हमने ही बनाए हैं अभी

पराधीनता का कोई भाव ही दिखाई नहीं देता गणराज्य में
तो कैसे जानूँ आजादी का अर्थ
( इस गणराज्य में आजादी)


कैसे कहूँ कि घर अपना है, बिल्लियों का रोना,जिप्सी आदि कविताओं में कीट पतंगों, छिपकलियों, तितली ,चिडिया, कुत्ते, बिल्ली आदि पशु-पक्षियों को महत्व देते हुए इको सिस्टम का महत्व भी कवि रेखांकित करता है।

जिस घर में रहता हूं
कैसे कहूं कि अपना है

चीटियां कीट पतंगे और
छिपकलियां भी रहती हैं
यहां बड़े मजों से

उधर कोने में कुछ चूहों ने
बनाया है अपना बसेरा
ट्यूब लाइट की ओट में
पल रहा है चिड़ियों का परिवार

आंगन में खिले फूलों पर
मंडराती तितलियां और भौंरे
गुनगुनाते हुए चले आते हैं
घर के अंदर तक
( कैसे कहूँ कि घर अपना है)

कुछ कविताओं में करुणा,दया, ममता जैसे मानवीय मूल्यों की खूबसूरत अभिव्यक्ति हुई है। अस्पताल की खिडकी से,भरी बरसात में बेवजह मुस्कुराती लडकी,बच्चे का चित्र, बंटी की मम्मी मायके जा रही है,व्रत करती स्त्री, मदर टेरेसा आदि कविताएँ इसी श्रेणी की हैं।
रेल गाडी के वातानुकूलित डिब्बे में बैठे लोग के जरिये समाज की असमानता और वर्ग विभाजन को देखा जा सकता है। सम्प्रभु वर्ग किस तरह जीवन से और उसकी सच्चाइयों से बेखर बना रहना चाहता है बहुत प्रभावी रूप से इस कविता में अभिव्यक्त हुआ है।

दिखाई नही दे रही है उन्हें
नीले आकाश में उडते पक्षियों की कतार
कच्चे रास्ते पर दौडती बैलगाडी
खेतों की हरी चादर और नदी में नहाते बच्चे
पेड की छाया में सुस्ताते मजदूर
बारिश के बाद की धूप, दूर तक फैला इन्द्रधनुष
और गोधूलि में घुलता हुआ सूरज

गहरे परदों से छनकर पहुँच रही है उन तक
उजली सुबह,सुनहरी दोपहर और गुलाबी शाम

जीवन के आसपास दीवारें खडी करने के बाद
पुस्तकों में खोज रहे हैं वे
जीवन।
(रेल गाडी के वातानुकूलित डिब्बे में बैठे लोग) 

बचपन में लौटने के लिए, मजे के साथ, आदि कविताएँ दृश्य की बेहतरी के लिए कवि की छोटी-छोटी सुन्दर आकांक्षाएँ हैं, जिसका वह मजा लेना चाहता है।

यह बहुत संतोष की बात है कि तमाम विकृतियों, विद्रूपताओं और विषमताओं के बीच ब्रजेश की काव्य दृष्टि में बेहतरी की उम्मीद और विश्वास की सकारात्मक चमक स्पष्ट नजर आती है। अंत में भूकम्प के बाद कविता की कुछ पंक्तियाँ देखिए-

कविता ही है जो मलबे पर खिलाती है फूल
बिछुड गए बच्चों के चेहरों पर लौटाती है मुस्कान
बिखर जाती है नई बस्ती की हवाओं में
सिकते हुए अन्न की खुशबू

अंत के बाद
अंकुरण की घोषणा करती
पुस्तकों में नही
जीवन में बसती हैं कविताएँ।

 (पुस्तक- इस गणराज्य में,  कवि-ब्रजेश कानूनगो,  मूल्य- रु.100/, प्रकाशक- दखल प्रकाशन,104, नवनीति सोसायटी,प्लॉट न.51,आई.पी.एक्सटेंशन,पटपडगंज, दिल्ली-110092)
समीक्षक- सुरेश उपाध्याय 





Tuesday, August 12, 2014

बचपन की बरसात

बचपन की बरसात
ब्रजेश कानूनगो

जब हम छोटे थे मौसम आने पर अक्सर बारिश लगातार सप्ताह-पखवाडे चलती रहती थी। कई-कई दिनों तक सूरज के दीदार नही हो पाते थे। लम्बे इंतजार के बाद धूप छिटकने के बाद क्षेत्र के अखबारों का पहले पृष्ठ पर ही शीर्षक बन जाता था कि एक पखवाडे बाद हुए सूर्य देवता के दर्शन!’  कोई तीस-पैंतीस बरस पहले ऐसी हेड लाइन आम हुआ करती थीं अखबारों में।

पर्यावरण का संतुलन अब इस तरह गडबडा गया है कि नए बच्चों को तो शायद याद ही नही है कि कभी लम्बे समय तक बादल छाए भी रहे होंगे। उन्होने खंड वर्षा को ही देखा है। पिछले वर्ष को ही लें तो भले ही एक साथ झमाझम बरसते हुए वर्षा ने औसत से अधिक का आंकडा पर कर लिया था लेकिन वर्ष के बारह महिनों में से नौ-दस महिने में टुकडे-टुकडे पानी हर महीने बरसा ही बरसा था।

बरसात के आते ही मन जैसे भीगा-भीगा सा हो जाता है। ऐसे में मुझे अपने कच्चे-कच्चे बचपन और बरसात के दिन बहुत तीव्रता से याद आने लगते हैं। बिल्कुल अभी अभी की बात लगती है जब तेज बरसात के बाद  हमारे मुहल्ले की गली से पानी ऐसे बहता था जैसे कोई छोटी-मोटी नदी बह रही हो। उस नदी के बहने का हम बहुत बेसब्री इंतजार किया करते थे। उसका बडा दिलचस्प कारण भी हुआ करता था। हमारी गली के ठीक आगे चौराहा था और उसके आगे पहाडी का ढलान। चौराहे पर अपनी बैलगाडिय़ों से गाँव से आकर किसान ककडियों और भुट्टों की दुकान लगाते थे। अचानक जब तेज बरसात होती और पहाडी का पानी बाजार में उतरता, किसानों के ककडी-भुट्टे गली में बहने लगते। कोशिश के बाद भी कई भुट्टों-ककडियों  को बचाने में वे नाकाम ही होते थे। मुहल्ले के बच्चों के लिए नदी बन गई गली जैसे भुट्टों और ककडियों की सौगात लेकर आती। हम सब अपने जोश और आनन्द की बंसी बजाते भुट्टों-ककडियों के शिकार में जुट जाते थे।

हमारी गली के एक ओर कायस्थों के घर थे और सामनेवाली पट्टी में ज्यादातर मुस्लिम परिवार रहते थे। दोनो पट्टियों के बच्चे बहती गली का भरपूर मजा लिया करते थे। सामनेवाले इस्माइल भाई  की अम्मा जिन्हे हम आपा कहा करते थे ऐसी ही बहती नदी से गुजर कर पतंग बनाना छोडकर उस रात हमारे घर आईं थीं। मेरी चाची को तेज दर्द हो रहा था, पूरे नौ माह चल रहे थे। जैसे तैसे मेरी माँ और आपा उन्हे जच्चाखाने ले गए थे। जब तक चाची अस्पताल रहीं, आपा भरी बरसात में चाची और नवजात की खिदमत में जुटीं रहीं। हम बच्चे उनकी बकरियों और पतंगों को बरसात की बौछारों से बचाते रहे। जब वे नन्हे चचेरे भाई को गोद में उठाए जाफर भाई के तांगे से घर लौटी तब बरसात तो उस वक्त थम चुकी थी लेकिन पानी की कुछ बूँदों और नमी ने जैसे आपा और हम सब की आँखों में डेरा ही डाल लिया था।  

लम्बी लम्बी चलनेवाली बारिश की तरह लम्बी ही चलती थी कानडकर बुआ की कथा। दत्तमन्दिर में पूरे चौमासा में कुछ न कुछ चला ही करता था। पन्द्रह दिन तक कानडकर बुआ रोज सबेरे कथा सुनाते थे। संगीत मय कथा-कथन और प्रवचन के बाद अंत में देश प्रेम के गीत और कीर्तन का सामूहिक गान भी हुआ करता था। स्कूल की छुट्टी होते ही बारिश में भीगते-भागते हम भी दत्त मन्दिर में पहुँच जाया करते थे। कीर्तन और देश-प्रेम गान में हमे बहुत मजा आता था। कभी-कभी जल्दी पहुँच जाते तो बुआ को कथा सुनाते भी देख लेते। वे इतने भावुक होकर अभिनय के साथ बोलते थे कि न सिर्फ उनकी बल्कि श्रोताओं,श्रद्धालुओं की आँखों से भी आँसुओं की लडी लग जाती थी। प्रंगानुसार उनकी प्रस्तुति होती थी। बाहर बारिश होती थी और भीतर बुआ संवेदनाओं की बारिश करवा दिया करते थे। सब कुछ भीग भीग जाता था। हमारा लालच तो वस्तुत: आखिर में वितरित किया जानेवाला प्रसाद होता था। अद्भुत स्वादवाले उस विशेष प्रसाद को गोपाल काळाकहते थे। जुवार की धानी को दही में मथ कर वह बनाया जाता था,जिसमें नमक,हरी मिर्च, अदरख व हरे धनिए का स्वाद समाहित होता था। दोना भर कर मिलने वाले इस प्रसाद के जायके का स्वाद आज भी जबान पर कायम है।

पत्नी बरसात होते ही भले ही अलग-अलग तरह की पकौडियाँ परोसती रहती है लेकिन मेरा मन उस दौरान स्मृतियों की झडी के बीच बचपन के उस गोपाल काळा की ख्वाहिश लिए लगातार अन्दर से भीगता रहता है।    

ब्रजेश कानूनगो
503,गोयल रिजेंसी,चमेली पार्क,कनाडिया रोड, इन्दौर-452018